हीरोपंती करने वाले तुर्रम खा असल मे कौन था | आइये पड़ते है तुर्रम खा के बारे मे

तुर्रम खां (Turram kha) का असली नाम तुर्रेबाज ख़ान (Turrebaz Khan) था.

‘वो अपने को बहुत बड़ा तुर्रम ख़ां समझता है’. ‘अमा ज़्यादा तुर्रम ख़ां न बनो’, ‘तुम्हारे जैसे तुर्रम ख़ां बहुत आए, मगर कुछ कर न पाए’. आपने आक्सर लोगों को इस तरह के डॉयलाग मारते सुना होगा. इसका मतलब भी तक़रीबन आप जानते ही होंगे. बहुत ज़्यादा जब कोई हीरो या रंगबाज़ बनता है, तब हम उसे तुर्रम खां बोल दिया करते हैं. मगर क्या आपने कभी सोचा है कि आख़िर ‘तुर्रम ख़ां’ (Turram kha) असल में कौन था, जिसके नाम का इस्तेमाल हम इस तरह किया करते हैं?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई का एक हीरो थे तुर्रम ख़ां

आपको जानकर हैरानी होगी कि तुर्रम ख़ां कोई मामूली शख़्स नहीं, बल्कि 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई का एक हीरो था. तुर्रम ख़ां का असली नाम तुर्रेबाज़ ख़ान (Turrebaz Khan) था. मंगल पांडे ने बैरकपुर में जिस आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत की थी, हैदराबाद में उसका नेतृत्व तुर्रम ख़ां ने किया था.

 

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तुर्रम ख़ां हैदराबाद के बेग़म बाज़ार में पैदा हुए थे. उनके शुरुआती ज़िंदगी के बारे में जानकारी बहुत कम है. मगर 1857 की लड़ाई में उस वक़्त उनका नाम उभरकर आया, जब उन्होंने जमादार चीदा ख़ान को छुड़ाने के लिए ब्रिटिश रेज़ीडेंसी पर हमले की योजना बनाई. दरअसल, जमादार चीदा ख़ान को विद्रोही सिपाहियों के ख़िलाफ़ दिल्ली कूच करने के लिए कहा गया था, मगर उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया.

सभी को उम्मीद थी कि निज़ाम अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की इस लड़ाई में साथ देगा. मगर वो धोखेबाज़ निकला. जब जमादार चीदा ख़ान अपने 15 सैनिकों के साथ निजाम के पास समर्थन लेने पहुंचा, तो निजाम के मंत्री ने धोखे से उन्हें गिरफ़्तार कर ब्रिटिश रेजीडेंसी में क़ैद कर लिया.

जब तुर्रम ख़ां ने 5,000 स्वंतंत्रता सेनानियों को इकट्ठा कर ब्रिटिश रेजीडेंसी पर बोला हमला

तुर्रम खां ने अपने साथी मौलवी अलाउद्दीन के साथ मिलकर 5,000 जांबाज़ लड़ाकों को तैयार किया. इसमें कई अरब, स्टूडेंट्स और अन्य विद्रोही शामिल थे. योजना थी कि अचानक से ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला बोला जाएगा. तुर्रम ख़ां को यक़ीन था कि अचानक हमले से अंग्रेज़ों को संभलने का मौक़ा नहीं मिलेगा. उसकी मदद करने के लिए बब्बन ख़ान और जयगोपाल दास ने रेजीडेंसी हाउस के सामने के दो मकान भी ख़ाली कर दिए.

मगर तुर्रम ख़ां की इस योजना की भनक अंग्रेंज़ों को लग चुकी थी. दरअसल, निजाम के वजीर सालारजंग ने गद्दारी करते हुए अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी थी. अंग्रेज़ सैनिक बंदूकों और तोपों से लैस तुर्रम ख़ां और उसके साथियों का इंतज़ार कर रहे थे. 17 जुलाई , 1857 की रात को तलवारों और लाठी-डंडों के साथ तुर्रम ख़ां ने अपने साथी मौलवी अलाउद्दीन और अन्य विद्रोहियों को लेकर हमला बोला. रात भर ताबडतोड़ फ़ायरिंग हुई और सुबह 4 बजे तक विद्रोहियों को अंग्रेज़ सैनिकों ने बुरी तरह हरा दिया.

तुर्रम ख़ां पर अंग्रेज़ों ने रखा 5,000 रुपये का इनाम

ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हुए हमले में कई जांबाज़ स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए. मगर अंग्रेज़ तुर्रम ख़ां को वहां पकड़ने में नाकामयाब रहे. हालांकि, निजाम के मंत्री तुराब अली ख़ान ने तुर्रम ख़ां का पता अंग्रेज़ों को बता दिया. अशूर खाना के पास जंगल में उन्हें पकड़ लिया गया.

हैदराबाद कोर्ट में तुर्रम ख़ां पर मुक़दमा चला. उनसे अपने बाकी साथियों का पता बताने के लिए कहा गया, मगर उन्होंने इन्कार कर दिया. ऐसे में तुर्रम ख़ां को काला-पानी की सज़ा दी गई. उन्हें जीवनभर सड़ने के लिए अंडमान भेजने की तैयारी शुरू हुई. हालांकि, अंग्रेज़ उन्हें अंडमान भेज पाते, इसके पहले ही 18 जनवरी 1859 को तुर्रम ख़ां अंग्रेज़ों की गिरफ़्त से फ़रार हो गए.

अंग्रेज़ों ने तुर्रम ख़ां पर 5,000 रुपये का इनाम रखा. हर ओर उन्हें पकड़ने के लिए सैनिक गश्त करने लगे. कुछ समय बाद एक तालुकदार मिर्ज़ा कुर्बान अली बेग ने तूपरण के जंगलों में धोखे से तुर्रम ख़ां को मार दिया. इतिहासकारों की मानें, तो तुर्रम ख़ां के शव को रेजीडेंसी में लाकर पेड़ से नंगा लटका दिया गया था. बता दें, भारत सरकार ने उनकी याद में एक सड़क का नामकरण भी किया है. हैदराबाद में यूनिवर्सिटी कॉलेज फ़ॉर विमेन के पास ‘तुर्रेबाज़ ख़ान’ रोड स्थित है.

तो तुर्रम ख़ां वो शख़्स थे, जिन्होंने कभी अंग्रेज़ों के आगे अपने घुटने नहीं टेके. जान दे दी मगर वतन से गद्दारी नहीं की. अब अगर आपको कोई तुर्रम ख़ां बोले, तो उसे तंज़ नहीं, बल्कि तारीफ़ समझिएगा.

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